आज की गंभीर समस्याओं पर आधारित एक नई कविता


 रोजगार 

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रोजगार,

रोजगार

पाने की तलाश में

होके भटक रहा बेगार।

चिलमिलाती धूप में

कभी भूखा तो कभी प्यासा

एक अदद नौकरी की लिए आशा

अब तो करो हे ईश्वर!

कुछ उपकार,चमत्कार

दिला दो रोजगार।

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रोज तानें सुन-सुन कान भर गया

स्वप्न नयन सेज पर ही मर गया

फॉर्म भर -भर के दिवाला निकल गया

चल-चल कर पैरों पर छाला निकल गया

अरे! बड़ी मुश्किल से एक पोस्ट आया

उसे लाखों जन ने परीक्षा देकर आजमाया

जिसकी किस्मत बुलन्द 

हो गया उसका बेड़ापार।

बाकी रह गया  बेरोजगार

अब तो करो हे ईश्वर!

कुछ उपकार,चमत्कार

दिला दो रोजगार।

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तमाम डिग्रियां और उपलब्धियां

फाइल में सजाएं बैठे हैं

सरकार भी निर्लज्ज 

नौकरी के नाम पर ऐठें हैं।

नौकरी पर्याय बन गई है नौकरशाही की

नौकरी पर्याय बन गई है फीताशाही की

हताश हो इंसान

घूमता है द्वार-द्वार

दर्द भरा उद्गार।

अब तो करो हे ईश्वर!

कुछ उपकार,चमत्कार

दिला दो रोजगार।

आनन्द सिंघनपुरी, साहित्यकार,रायगढ़

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